संत रामानंदाचार्य के निर्मोही अखाड़े के 1200 साधु वो वीर योद्धा थें जिन्होंने इस मुश्किल कार्य को करने में अपनी जान की बाजी लगा दी थी। इस अखाड़े के नौवें महंथ गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई को दिए हुए दो वचन जो उनके पुत्र दामोदर की रक्षा और रानी की मृत्यु की स्थिति में रानी के शव की अंग्रजों से रक्षा थे उनको पूरा करने के लिए 1200 साधुओं के साथ अंग्रेजी हुकुमत से दो दो हाथ किए थे। इस लड़ाई में 745 साधुओं ने वीरगति प्राप्त की थी जिनकी समाधियां रानी लक्ष्मीबाई की समाधी के साथ इस शाला में मौजूद हैं। शहीदों के बलिदान को याद करते हुए यहां अखंड ज्योति जलती रहती है और हर साल 18 जून को मनाए जाने वाले संत शहीदी दिवस में देश भर के लोग शामिल होते हैं।
यादगार के तौर पर संतो द्वारा युद्ध में इस्तेमाल किए गए तलवार, भाले और चिमटे सुरक्षित रखे गए हैं जिनमें 1857 स्वाधीनता संग्राम में प्रयोग हुई एक तोप भी शामिल है जिसे हर साल विजयादशमी को चलाया जाता है। 17 वीं शदी में बनी यह तोप आज भी बिना किसी परेशानी के गोले दागने का काम करती है। जिस पीठ में ये समाधियां बनी हुई हैं उस पीठ के संस्थापक महंत परमानंद गोसांई एक सिद्ध महंत थे जो योग के माध्यम से अपने शरीर के अंगों को भी अलग अलग कर देते थे। मुगल सम्राट अकबर को भी महंत के सामने अपने सर झुकाने पड़ गए थे जब महंत ने अकबर को अपनी इस योग विद्या का नमूना दिखाया था। घटना कुछ ऐसे हुई कि शंख और आरती की ध्वनियों से परेशान होकर अकबर ने अपने कुछ सैनिकों को लेकर मठ पर चढ़ाई की थी लेकिन महंत परमानंद गोसांई की योग सिद्धी ने अकबर को शस्त्र डालने पर मजबूर कर दिया था।
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