सन् 1980 में विश्व हिंदु परिषद ने इस स्थान पर पुनः राम मंदिर बनाने की घोषणा की जिसे भारतीय जनता पार्टी से पूरा समर्थन मिला। सन् 1986 में एक जिला जज द्वारा हिंदुओं के पुनः प्रवेश के आदेश ने इस आंदोलन को कहीं ज्यादा बल दिया। भारतीय जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सितंबर 1990 में मंदिर निर्माण हेतु रथ यात्रा शुरू की परंतु उन्हें बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना से आक्रोशित लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे और 6 दिसंबर 1992 को पुलिस प्रशासन के प्रतिरोध के बावजूद कारसेवकों ने मस्जिद को ध्वस्त कर उस स्थान पर भगवान श्री राम के मूर्ति की स्थापना कर दी।
जवाब में सरकार ने पुलिस को कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया जिसमें 2000 से ज्यादा कारसेवक मारे गए। सरकार ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों पर चलते हुए सभी बड़े हिंदु नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जिससे देश का माहौल कहीं ज्यादा खराब हो गया। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और चुनाव की मांग कर दी। जनता ने भारतीय जनता पार्टी का पूरा समर्थन किया और ना सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की सीटों में इजाफा हुआ बल्कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी बन गई।
लेकिन राम जन्मभूमि मुद्दे पर विवाद बना रहा और यह कांग्रेसी सरकारों और वामपंथी इतिहासकारों की देन है कि सबकी रक्षा करने वाले भगवान अपनी ही जन्मभूमि पर अपना अस्तित्व तलाश कर रहे हैं। सरकार ने पुरातत्व विशेषज्ञों की एक टीम भेजकर उस स्थान की खुदाई भी कराई जिससे मंदिर या मस्जिद होने का प्रमाण मिल सके। जांच कमेटी की रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई जिसमें कांग्रेसी सरकार ने राम जन्मभूमि स्थान पर किसी भी मंदिर होने के प्रमाण को नकार दिया। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसने इस स्थान पर चल रहे विवाद को और बढ़ा दिया। आज यह मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित है।
हाल ही में जाने माने पुरातत्व विशेषज्ञ डाॅ के के मोहम्मद, जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्तर प्रदेश के पूर्व निदेशक रह चुके हैं, ने मलयालम भाषा में प्रकाशित अपनी आत्मकथा “जानएन्ना भारतीयन” में यह बात स्वीकार की है कि 1976-77 में हुई राम जन्मभूमि स्थल पर हुई पुरातत्व विभाग की खुदाई में उस स्थान पर मंदिर होने के पर्याप्त प्रमाण मिले थे और उनकी टीम ने ये प्रमाण केंद्र की कांग्रेस सरकार को सौंपे भी थे। लेकिन कांग्रेस सरकार ने इन प्रमाणों को नजरअंदाज कर दिया और सरकार के मुताबिक रिपोर्ट बनाने को कहा। डाॅ मोहम्मद उस टीम का हिस्सा थे जिसका नेतृत्व प्रोफेसर बी बी लाल कर रहे थे। बी बी लाल तब भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक थे।
अपनी जीवनी में डाॅ मोहम्मद ने अपनी बातों को पूर्णतः सच बताते हुए कहा है कि राम जन्मभूमि स्थल पर 14 मंदिर स्तंभों का मिलना इस बात का प्रमाण था कि वहां मंदिर का ढांचा कभी रहा होगा। सभी स्तंभों पर 11वीं तथा 12वीं शताब्दी में मिलने वाले कलश भी विद्यमान थे जो सिर्फ किसी मंदिर मे ही हो सकते हैं। इस स्थान पर जलाभिषेक के उपरांत प्रवाहित किए जाने वाले जल के लिए मगरमच्छ के आकार की एक व्यवस्था भी मिली है जिसे आमतौर पर उस सदी के हिंदु मंदिरों में देखा जाता है। ये पर्याप्त प्रमाण थे कि इस स्थान पर मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनाई गई थी।
डाॅ के के मोहम्मद ने केंद्र की कांग्रेस सरकार और वामपंथी नेताओं पर ना सिर्फ देश के हिंदुओं बल्कि मुसलमानों को भी गुमराह करने का आरोप लगातेे हुए कहा कि अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो राम जन्मभूमि मुद्दा कब का सुलझ गया होता। इन लोगों ने चरमपंथी मुस्लिम संगठनों से मिलकर इस विवाद के सौहार्द पूर्ण समाधान निकलने की स्थिति पर पानी फेर दिया। कई चरमपंथी मुसलमानों को सरकारी बैठकों का हिस्सा बनाया गया और बाबरी मास्जिद कमेटी को कहीं ज्यादा प्राथमिकता दी गई। डाॅ मोहम्मद का दावा है कि वामपंथी इतिहासकार और इंदिरा गांधी द्वारा पुर्नगठित भारतीय इतिहास अनुसंधान परषिद के सदस्यों जैसे कि प्रोेफेसर इरफान हबीब, एस गोपाल, बिपिन चंद्र और रोमिला थापर जैसे कई लोगों ने अपने हिसाब से इतिहास लिखकर देश के मुसलमानों का ब्रेन वाश कर दिया।
इन इतिहासकारों ने मुसलमानों को यह समझाया की राम जन्मभूमि स्थल पर किसी भी तरह की तोड़फोड़ का कोई प्रमाण नहीं मिला और ना ही किसी भी मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए, जो इस बात का प्रमाण है कि उस स्थान पर सिर्फ एक मस्जिद थी। डाॅ के के मोहम्मद की सरकार के विरोध में उठाई गई आवाज को सरकार के प्रभाव में कहीं कोई वरीयता नहीं मिली और उनके प्रमाण को सिर्फ एक समाचार पत्र के “संपादक को लिखे गए पत्र” वाले काॅलम में प्रकाशित किया गया।
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