“यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। “

यशवंतराव के सामने तो अंग्रेज बिना शर्त के ही समझौता करने को तैयार थे, लेकिन इस बहादुर शासक को अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया। गद्दारी सहने के बावजूद भी वह कभी जंग के मैदान से पीछे नहीं हटे।
इनका नाम विश्व के महान शासकों में लिया जाता है। इतनी महान हस्ती होने के बावजूद भी, जिन्होंने भारत के लिए इतना बड़ा योगदान दिया वह आज इतिहास के पन्नों में घुम से गए हैं। आज तो शायद लोग उन्हें पहचानते तक नहीं। इनकी शौर्य गाथा कुछ ऐसी है की इतिहासकार एनएस इनामदार ने इनकी तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है।
इनका जन्म वर्ष 1776 में हुआ था। इनके बड़े भाई को ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने धोखे से मरवा दिया था। उनकी मृत्यु के बाद यशवंतराव ने पश्चिम मध्य प्रदेश की मालवा रियासत को संभाला। उस समय बहादुरी और चतुराई में इनका कोई सानी नहीं था।
इनकी बहादुरी का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वर्ष 1802 में इन्होंने पेशवा बाजीराव द्वितीय और सिंधिया की मिली जुली सेना को इंदौर से खदेड़ दिया और इंदौर वापस पा कर उन्होंने अपने भाई का बदला लिया।
यह वही दौर था जब अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ रहा था। अंग्रेज रियासतों को लालच देकर, डरा धमका कर अपना राज कायम कर रहे थे। यह होलकर को बिल्कुल भी रास ना आया।
उन्होंने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए नागपुर के भोसले और ग्वालियर के सिंधिया से हाथ मिलाया ताकि वह मिल-जुलकर अंग्रेजो के खिलाफ लड़ सके। लेकिन भोंसले और सिद्धियां से उनकी तो पुरानी दुश्मनी थी और इसी दुश्मनी का फायदा अंग्रेजों ने उठाया। अंग्रेजो ने भोसले और सिंधिया को होलकर के खिलाफ भड़काया और अंग्रेजो की बातों में आकर भोसले और सिंधिया ने यशवंत राव को एक बार फिर धोखा दे दिया।
उसके बाद भी होलकर ने हार ना मानी और अकेले ही अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठाणी। 8 जून 1804 को उनहोने अंग्रेजो को बुरी तरह से हराया, और 8 जुलाई1804 को भी अंग्रेजों को कोटा में हार का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों को समझ नहीं आ रहा था की वह यशवंतराव को कैसे हराए।
अंग्रेजों ने पुन: नवंबर में प्रयास किया ओर एक बड़ा हमला किया। इस युद्ध में यशवंत राव का साथ भरतपुर के महाराजा रणजीत सिंह ने भी दिया और अंग्रेजों को हरा दिया। ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध में यशवंतराव की सेना ने 300 अंग्रेजों के नाक काट दिए थे।
लेकिन इस युद्ध के बाद रणजीत सिंह ने यशवंतराव का साथ छोड़ कर अंग्रेजों से हाथ मिला लिया। लेकिन सिंधिया उनकी बहादुरी से बहुत प्रसन्न था और उन्होंने यशवंतराव से हाथ मिलाने का प्रस्ताव रखा।
अंग्रेज लगातार हारते जा रहे थे, फिर उन्होंने संधि करने की चाल चली। अंग्रेजो ने यशवंतराव को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने बिना किसी शर्त के यशवंतराव के साथ संधि करने की इच्छा जताई और यह भी कहा कि यशवंतराव को जो चाहिए, वह मिलेगा। लेकिन इस प्रस्ताव को यशवंतराव ने ठुकरा दिया।
यशवंत सभी शासकों को एक साथ जोड़ना चाहते थे, लेकिन इसमें उनको सफलता नहीं मिली। फिर उन्होंने दूसरी चाल चली। उन्होंने 1805 में अंग्रेजो के साथ संधि कर ली। अंग्रेजो ने उन्हें स्वतंत्र शासक मानते हुए उनके सभी क्षेत्र लौटा दिए। इस के बाद उन्होंने चुपके से सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजो को खदेड़ने की योजना बनाई। इसी विषय पर यशवंतराव ने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया ने गद्दारी करते हुए वह खत अंग्रेजो को सौंप दिया।
लेकिन यशवंतराव कहां हार मानने वाले थे। उन्होंने एक गोला बारुद का कारखाना भानपुर में बनाया, जिसका इस्तेमाल वो अंग्रेजो के खिलाफ करना चाहते थे। लेकिन उस समय उनका स्वास्थ्य गिर रहा था और 28 अक्टूबर 1811 मे ही उनकी खराब स्वास्थ्य के चलते मृत्यु हो गई। उस समय उनकी आयु केवल 35 वर्ष की थी।
यशवंतराव ने कभी मानो पराजित होना सीखा ही ना हो। वह बाल्यकाल से ही युद्ध करते आए थे। यह सब तो उन्होंने अकेले ही किया, सोचिए अगर ओर शासकों ने उनका साथ दिया होता तो आज भारत की तस्वीर कैसी होती?
यशवंतराव होलकर को आज हमने शायद इतिहास में ही छोड़ दिया हो, लेकिन उनके योगदान को कोई भी देशभक्त कभी भूल नहीं सकता वंदेमातरम् |
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